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Wednesday, April 7, 2021

इलाहाबाद हाई कोर्ट ने उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा लगाए गए NSA के 80% मामले खारिज

 

           इलाहाबाद हाई कोर्ट 

उत्तर प्रदेश सरकार ने पिछले तीन सालों में जिन मामलों में राष्ट्रीय सुरक्षा कानून (NSA) लगाया उनमें से 120 मामलों में इलाहाबाद हाईकोर्ट ने फैसला सुनाया, उनमें से आधे से अधिक मतलब 61 मामले गोहत्या और सांप्रदायिक हिंसा से जुड़े हुए थे

हाईकोर्ट ने जिन कम से कम 50 बंदी प्रत्यक्षीकरण जिनमें अपना फैसला सुनाया उनमें से लगभग 80 फीसदी मामलों में हाईकोर्ट ने आदेशों को रद्द कर दिया और हिरासत में लिए गए लोगों की रिहाई का आदेश दे दिया.

सांप्रदायिक घटनाओं के मामले में यह 100 फीसदी रहा जहां जनवरी 2018 और दिसंबर 2020 के बीच हाईकोर्ट ने उसके सामने आई सभी 20 हीबियस कॉर्पस याचिकाओं पर सुनवाई करते हुए सभी मामलों में एनएसए के आदेश को रद्द कर दिया



पुलिस और अदालत के रिकॉर्ड्स दिखाते हैं कि इन मामलों में सभी आरोपी अल्पसंख्यक समुदाय से थे और कम से कम चार मामलों में अदालत ने इस तथ्य को रिकॉर्ड में दर्ज किया.

उत्तर प्रदेश सरकार के एक प्रवक्ता ने जनवरी 2018 और दिसंबर 2020 के बीच एनएसए केसों की सिलसिलेवार जानकारी दी.



534 मामलों में एनएसए लगाया गया और उनमें से 106 मामलों को वापस एडवाइजरी बोर्ड द्वारा वापस ले लिया गया जबकि 50 मामलों को हाईकोर्ट ने रद्द कर दिया.

कुछ मामले:

सांप्रदायिक दंगा भड़काने के आरोप में कानपुर के जिलाधिकारी ने 3 नवंबर 2017 को फर्खुंद सिद्दीकी एनएसए आदेश जारी किया था.

इस मामले में हाईकोर्ट ने सुप्रीम कोर्ट का हवाला देते हुए कहा, ‘यदि राज्य को लगता है कि वह जमानत के लायक नहीं है, तो राज्य जमानत देने का विरोध कर सकता है. हालांकि, उसे नजरबंदी के आदेश पर मुहर लगाकर अदालत को जमानत के लिए स्थानांतरित करने से नहीं रोका जा सकता. न्यायालय द्वारा जमानत देने की संभावना पर्याप्त नहीं हो सकती है. न ही एक अधूरा बयान कि व्यक्ति अपनी आपराधिक गतिविधियों को दोहराएगा पर्याप्त होगा.’

– मुजफ्फरनगर के जिलाधिकारी ने एक ही शख्स द्वारा दर्ज कराई गई दो एफआईआर के आधार पर 6 अक्टूबर 2018 को शमशेर के खिलाफ एनएसए जारी किया.

इस मामले में हाईकोर्ट ने कहा कि याचिकाकर्ता का यह तर्क कि निरोध आदेश मुख्य रूप से इस आधार पर पारित किया गया है कि याचिकाकर्ता मुस्लिम समुदाय से है, जबकि इस तथ्य का उल्लेख नहीं किया गया कि दूसरी प्राथमिकी पहली प्राथमिकी का एक तार्किक निष्कर्ष था जिसमें उनका नाम नहीं था.

इसमें कहा गया, ‘शुरुआत में ही यह उल्लेख किया गया है कि भले ही याचिकाकर्ता का नाम दिया गया हो, कोई भी विशिष्ट भूमिका उसे नहीं सौंपी गई है. हालांकि यह उल्लेख किया गया है कि सौ लोगों की भीड़ जमा हो गई थी लेकिन किसी को भी कोई चोट नहीं आई थी, यहां तक कि एक खरोंच भी.’



तीन एफआईआर के आधार पर 25 मई 2018 को अलीगढ़ के जिलाधिकारी ने अदब के खिलाफ एनएसए जारी किया था.

10 जुलाई 2020 को जौनपुर के जिलाधिकारी ने जावेद सिद्दीकी के खिलाफ एनएसए लगाया था जिसमें आरोप था कि उन्होंने और 56 ज्ञात व 25 अज्ञात लोगों ने एक बस्ती में घुसकर दंगा और आगजनी के साथ जातिगत टिप्पणी की.



इस मामले में हाईकोर्ट ने कहा, ‘जहां याचिकाकर्ता के खिलाफ कार्रवाई करने में असाधारण जल्दबाजी दिखाई गई तो वहीं
अधिकारी अनिच्छुक रहे और उनकी ओर से पूर्ण निष्क्रियता थी जिससे हिरासत में रखे गए शख्स के प्रतिनिधित्व को संसाधित करने में अनुचित देरी हुई समक्ष
प्रतिनिधित्व नहीं रखा गया.’

उसने निष्कर्ष निकाला कि जहां कानून कार्यपालिका को असाधारण शक्ति प्रदान करता है कि वह बिना किसी व्यक्ति को हिरासत में रखे और अदालतों द्वारा मुकदमे की सुनवाई कर सके, ऐसे कानून को कड़ाई से लागू किया जाना चाहिए और कार्यकारी को अत्यधिक सावधानी के साथ शक्ति का प्रयोग करना चाहिए.





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